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दर्द के दाइमी रिश्तों से लिपट जाते हैं | शाही शायरी
dard ke daimi rishton se lipaT jate hain

ग़ज़ल

दर्द के दाइमी रिश्तों से लिपट जाते हैं

सुबहान असद

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दर्द के दाइमी रिश्तों से लिपट जाते हैं
अक्स रोते हैं तो शीशों से लिपट जाते हैं

हाए वो लोग जिन्हें हम ने भुला रक्खा है
याद आते हैं तो साँसों से लिपट जाते हैं

किस के पैरों के निशाँ हैं कि मुसाफ़िर भी अब
मंज़िलें भूल के रस्तों से लिपट जाते हैं

जब वह रोता है तो यक-लख़्त मिरी प्यास के होंट
उस की आँखों के किनारों से लिपट जाते हैं

जब उन्हें नींद पनाहें नहीं देती हैं 'असद'
ख़्वाब फिर जागती आँखों से लिपट जाते हैं