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दर्द कम होने लगा आओ कि कुछ रात कटे | शाही शायरी
dard kam hone laga aao ki kuchh raat kaTe

ग़ज़ल

दर्द कम होने लगा आओ कि कुछ रात कटे

नासिर काज़मी

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दर्द कम होने लगा आओ कि कुछ रात कटे
ग़म की मीआ'द बढ़ा जाओ कि कुछ रात कटे

हिज्र में आह-ओ-बुका रस्म-ए-कोहन है लेकिन
आज ये रस्म ही दोहराओ कि कुछ रात कटे

यूँ तो तुम रौशनी-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र हो लेकिन
आज वो मो'जिज़ा दिखलाओ कि कुछ रात कटे

दिल दुखाता है वो मिल कर भी मगर आज की रात
इसी बे-दर्द को ले आओ कि कुछ रात कटे

दम घुटा जाता है अफ़्सुर्दा-दिली से यारो
कोई अफ़्वाह ही फैलाओ कि कुछ रात कटे

मैं भी बे-कार हूँ और तुम भी हो वीरान बहुत
दोस्तो आज न घर जाओ कि कुछ रात कटे

छोड़ आए हो सर-ए-शाम उसे क्यूँ 'नासिर'
उसे फिर घर से बला लाओ कि कुछ रात कटे