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दर्द का समुंदर है सिर्फ़ पार होने तक | शाही शायरी
dard ka samundar hai sirf par hone tak

ग़ज़ल

दर्द का समुंदर है सिर्फ़ पार होने तक

फ़रह इक़बाल

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दर्द का समुंदर है सिर्फ़ पार होने तक
इश्क़ की हक़ीक़त के आश्कार होने तक

रोज़-ओ-शब की गर्दिश में महव-ए-रक़्स रहते हैं
ख़ाक के बगूले हैं बस ग़ुबार होने तक

ख़्वाहिशों की ख़ुशबू में ख़्वाब ख़्वाब फिरते थे
पालकी में तारों की हम सवार होने तक

क़ुर्बतों के जंगल में देर कितनी लगती है
पैरहन मोहब्बत का तार तार होने तक

सोच की हवेली में इक सुकूत तारी था
मुंतज़िर निगाहों के बे-क़रार होने तक

आतिश-ए-ग़म-ए-दिल में ख़ाक हो गए हम तो
रिश्ता-ए-मोहब्बत के उस्तुवार होने तक

ज़िंदगी के लहजे को एक उम्र लगती है
धूप की तमाज़त से साया-दार होने तक

अजनबी मुसाफ़िर थे हम-सफ़र रहे फिर भी
इक गुरेज़ हाइल था ए'तिबार होने तक

पानियों के सीने पर आज भी सफ़ीने हैं
सर-फिरी हवाओं के साज़गार होने तक

कितनी मौजें डूबें-गी साहिलों के दामन में
क़ुर्बतों की कोशिश में राज़-दार होने तक

था कमाल-ए-कूज़ा-गर ढालता रहा मुझ को
हाँ 'फ़रह' लगे बरसों शाह-कार होने तक