दर्द जब दिल में समा जाता है
लज़्ज़त-ए-ज़ीस्त बढ़ा जाता है
ख़ून-ए-मासूम से दीवारों पर
ग़म का अफ़्साना लिखा जाता है
अब तो हर जज़्बा-ए-बेबाक का भी
हौसला पस्त हुआ जाता है
जाने क्यूँ मुझ को हया आती है
वार जब उन का ख़ता जाता है
ग़म-ए-अय्याम का हर इक मंज़र
शिद्दत-ए-दर्द बढ़ा जाता है
रफ़्ता रफ़्ता दिल-ए-दीवाना भी
महरम-ए-राज़ हुआ जाता है
बे-गुनाहों का भी अब तो 'फ़ारिग़'
जीना दुश्वार हुआ जाता है

ग़ज़ल
दर्द जब दिल में समा जाता है
लक्ष्मी नारायण फ़ारिग़