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दर्द-ए-जिगर ख़ुद अपनी दवा हो ऐसा भी हो सकता है | शाही शायरी
dard-e-jigar KHud apni dawa ho aisa bhi ho sakta hai

ग़ज़ल

दर्द-ए-जिगर ख़ुद अपनी दवा हो ऐसा भी हो सकता है

सय्यद नवाब हैदर नक़वी राही

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दर्द-ए-जिगर ख़ुद अपनी दवा हो ऐसा भी हो सकता है
यूँ ही किताब-ए-ज़र में लिखा हो ऐसा भी हो सकता है

हिज्र की रात में शम-ए-शबिस्ताँ हद से बढ़ कर रौशन थी
इस हंगाम में दिल भी जला हो ऐसा भी हो सकता है

रोज़-ए-अज़ल जो अहद किया था इंसाँ ने वो सच ही था
बार-ए-अमानत उठ न सका हो ऐसा भी हो सकता है

कहाँ नशेमन दिल का बनाएँ उलझन भी है और डर भी
ख़ुद ही शिकस्ता शाख़-ए-वफ़ा हो ऐसा भी हो सकता है

हर्फ़-ए-वफ़ा की कोई वक़अत दुनिया की नज़रों में नहीं
हर्फ़-ए-वफ़ा ही झूट कहा हो ऐसा भी हो सकता है

हुस्न-ओ-इश्क़ की लाग में आख़िर किस को मुजरिम ठहराएँ
दिल का दामन चाक हुआ हो ऐसा भी हो सकता है

बहर-ए-तमन्ना से 'राही' आई है सदा-ए-ग़र्क़ाबी
दिल का सफ़ीना डूब रहा हो ऐसा भी हो सकता है