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दर्द-ए-फ़ुर्क़त को क्या करे कोई | शाही शायरी
dard-e-furqat ko kya kare koi

ग़ज़ल

दर्द-ए-फ़ुर्क़त को क्या करे कोई

सफ़ी औरंगाबादी

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दर्द-ए-फ़ुर्क़त को क्या करे कोई
हाए आदत को क्या करे कोई

दिल की हसरत को क्या करे कोई
इस मुसीबत को क्या करे कोई

प्यार करने से आर है तो कहो
अच्छी सूरत को क्या करे कोई

दोस्तों को तो रोकूँ शोख़ी से
सारी ख़िल्क़त को क्या करे कोई

चश्म-ओ-दिल से छुपाऊँ दर्द-ए-निहाँ
रंग-ए-सूरत को क्या करे कोई

अपने दिल का तो ख़ून कर डालूँ
उन की सूरत को क्या करे कोई

उन का फ़रमान है कि आह-ओ-फ़ुग़ाँ
मा-बदौलत को क्या करे कोई

नासेहों को सलाम भी कर लूँ
उस नसीहत को क्या करे कोई

आरज़ू है तो ख़ौफ़ भी कुछ है
पाक निय्यत को क्या करे कोई

तुझ में जो बात चाहिए वो नहीं
ले के सूरत को क्या करे कोई

वो ख़फ़ा हों तो मैं ख़ता कर लूँ
छेड़ हुज्जत को क्या करे कोई

मेहरबाँ हैं जनाब-ए-दिल उस पर
ऐसे हज़रत को क्या करे कोई

मेरी तक़रीर में तो है तासीर
तेरी सोहबत को क्या करे कोई

नाम भी उन का हम नहीं लेते
अब शरारत को क्या करे कोई

ऐ 'सफ़ी' वो बिगड़ गए मन कर
तेरी क़िस्मत को क्या करे कोई