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दर्द-ए-दिल ज़ख़्म-ए-जिगर का राज़दाँ कोई नहीं | शाही शायरी
dard-e-dil zaKHm-e-jigar ka raazdan koi nahin

ग़ज़ल

दर्द-ए-दिल ज़ख़्म-ए-जिगर का राज़दाँ कोई नहीं

मंसूर ख़ुशतर

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दर्द-ए-दिल ज़ख़्म-ए-जिगर का राज़दाँ कोई नहीं
वाक़िफ़-ए-असरार-ए-ग़म आज़ार-ए-जाँ कोई नहीं

पास जिस के कुछ नहीं माल-ओ-मता'-ए-बे-बहा
उस को क्या ग़म कि मुहाफ़िज़ पासबाँ कोई नहीं

क्या सुलूक हम-साए का बतलाए इक ख़ाना-ब-दोश
बे-दर-ओ-दीवार सा जिस का मकाँ कोई नहीं

दाद के लाएक़ अमीर-ए-शहर ही की ज़ात है
क्यूँकि अब फ़ुटपाथ पर भी बे-अमाँ कोई नहीं

ख़ाना-ए-दिल तक मिरे कोई गया तो है ज़रूर
नक़्श पा का छोड़ा है लेकिन निशाँ कोई नहीं

रोज़ कुछ ऐसे गुज़रते इस जहाँ से हैं ज़रूर
हाए जिस का रोने वाला नौहा-ख़्वाँ कोई नहीं

आबरू अल्लाह ने 'ख़ुशतर' जबीं की रक्खी है
जिस का इस दर के सिवा है आस्ताँ कोई नहीं