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दर्द-ए-दिल को दास्ताँ-दर-दास्ताँ होने तो दो | शाही शायरी
dard-e-dil ko dastan-dar-dastan hone to do

ग़ज़ल

दर्द-ए-दिल को दास्ताँ-दर-दास्ताँ होने तो दो

तल्हा रिज़वी बारक़

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दर्द-ए-दिल को दास्ताँ-दर-दास्ताँ होने तो दो
शहर-ए-क़ातिल में ज़रा अम्न-ओ-अमाँ होने तो दो

मेरी आह-ए-नीम-शब मंज़िल-नुमा-ए-शौक़ है
नाला-ए-दिल को रहील-ए-कारवाँ होने तो दो

और भी ना-क़द्र-दानी-ए-हुनर याद आएगी
हम-नशीनों को मलाल-ए-रफ़्तगाँ होने तो दो

दिल उधर माइल हुआ ही था कि वहशत बढ़ गई
उस की चाहत को ज़रा आतिश-बजाँ होने तो दो

ख़ाना-ए-बे-रंग भी है शीशा-ए-सद-रंग भी
दिल को पहले बे-नियाज़-ए-ईन-ओ-आँ होने तो दो

सुर्ख़ी-ए-ख़ून-ए-तमन्ना आबरू-ए-इश्क़ है
आरज़ूओं का लहू रंग-ए-बयाँ होने तो दो

है निहाँ मश्क़-ए-सुख़न में फ़िक्र-ओ-फ़न औज-ए-सुख़न
हाँ ज़मीन-ए-शेर को 'बर्क़' आसमाँ होने तो दो