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दर्द-ए-दिल भी ग़म-ए-दौराँ के बराबर से उठा | शाही शायरी
dard-e-dil bhi gham-e-dauran ke barabar se uTha

ग़ज़ल

दर्द-ए-दिल भी ग़म-ए-दौराँ के बराबर से उठा

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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दर्द-ए-दिल भी ग़म-ए-दौराँ के बराबर से उठा
आग सहरा में लगी और धुआँ घर से उठा

ताबिश-ए-हुस्न भी थी आतिश-ए-दुनिया भी मगर
शो'ला जिस ने मुझे फूँका मिरे अंदर से उठा

किसी मौसम की फ़क़ीरों को ज़रूरत न रही
आग भी अब्र भी तूफ़ान भी साग़र से उठा

बे-सदफ़ कितने ही दरियाओं से कुछ भी न हुआ
बोझ क़तरे का था ऐसा कि समुंदर से उठा

चाँद से शिकवा-ब-लब हूँ कि सुलाया क्यूँ था
मैं कि ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब की ठोकर से उठा