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दर्द-ए-आलम भी कहीं दर्द-ए-मोहब्बत ही न हो | शाही शायरी
dard-e-alam bhi kahin dard-e-mohabbat hi na ho

ग़ज़ल

दर्द-ए-आलम भी कहीं दर्द-ए-मोहब्बत ही न हो

मज़हर इमाम

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दर्द-ए-आलम भी कहीं दर्द-ए-मोहब्बत ही न हो
दिल के बहलाने की ये भी कोई सूरत ही न हो

आज तज़ईन-ए-जमाल एक फ़साना ही सही
कल ये मश्शात्गी-ए-हुस्न हक़ीक़त ही न हो

उन की आँखों में मचलता है जो अफ़साना-ए-शौक़
सोचता हूँ कहीं वो मेरी हिकायत ही न हो

बे-रुख़ी पर जिसे महमूल किया करता हूँ
वो भी कुछ आप का अंदाज़-ए-मोहब्बत ही न हो

आज ख़ुद हुस्न को देखा है सर-ए-कूचा-ए-इश्क़
देखें आग़ाज़ कोई ताज़ा रिवायत ही न हो

अक़्ल भी अब रसन-ओ-दार तक आ पहुँची है
तिफ़्लक-शौक़ की इक ये भी शरारत ही न हो