दर्द अपना था तो इस दर्द को ख़ुद सहना था
न किसी और से दुख अपना कभी कहना था
ग़लती की कि मुरव्वत में मुसीबत झेली
ज़ुल्म बर्दाश्त ही करना था न चुप रहना था
अश्क बन कर जो न बहता तो रगों में बहता
किसी सूरत से लहू था तो उसे बहना था
शुबह होता था कि है रंग-ए-बदन या मल्बूस
बे-लिबासी थी लिबास उस ने कहाँ पहना था
मैं जो मर जाऊँ तो सब लोग कहेंगे 'आज़र'
इतनी बोसीदा इमारत थी इसे ढहना था
ग़ज़ल
दर्द अपना था तो इस दर्द को ख़ुद सहना था
राशिद आज़र