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दर्द अपना मैं इसी तौर जता रहता हूँ | शाही शायरी
dard apna main isi taur jata rahta hun

ग़ज़ल

दर्द अपना मैं इसी तौर जता रहता हूँ

जुरअत क़लंदर बख़्श

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दर्द अपना मैं इसी तौर जता रहता हूँ
हस्ब-ए-हाल उस को कई शेर सुना रहता हूँ

इक ही जा रहने का है घर प उसी घर में आह
दिल ये रहता है जुदा और मैं जुदा रहता हूँ

बात में किस की सुनूँ आह कि ऐ मुर्ग़-ए-चमन
शोर में अपने ही नालों के सदा रहता हूँ

बारे इतना है असर दर्द के अफ़्साने में
एक दो शख़्स को हर रोज़ रुला रहता हूँ

बज़्म-ए-ख़ूबाँ में ये सर गो कटे रोने पे मिरा
शम्अ-साँ अश्क पर आँखों से बहा रहता हूँ

आह-ओ-नाला में अगर कुछ भी असर है मेरे
तो मैं उस शोख़ को इक रोज़ बुला रहता हूँ

हुस्न और इश्क़ का क्या ज़िक्र करूँ मत पूछो
इन दिनों ज़ीस्त से भी अपनी ख़फ़ा रहता हूँ

दिल लगा जब से मिरा आह तभी से 'जुरअत'
कितनी ही आफ़तें हर रोज़ उठा रहता हूँ