दरख़्तों से जुदा होते हुए पत्ते अगर बोलें
तो जाने कितने भूले-बिसरे अफ़्सानों के दर खोलें
इकट्ठे बैठ कर बातें न फिर शायद मयस्सर हों
चलो इन आख़िरी लम्हों में जी भर कर हँसें बोलें
हवा में बस गई है फिर किसी के जिस्म की ख़ुशबू
ख़यालों के परिंदे फिर कहीं उड़ने को पर तौलें
जहाँ थे मुत्तफ़िक़ सब अपने बेगाने डुबोने को
उसी साहिल पे आज अपनी अना की सीपियाँ रोलें
भँवर ने जिन को ला फेंका था इस बे-रहम साहिल पर
हवाएँ आज फिर उन कश्तियों के बादबाँ खोलें
न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला
अकेले आइने के सामने हँस लें कभी रोलें
ग़ज़ल
दरख़्तों से जुदा होते हुए पत्ते अगर बोलें
ख़ालिद शरीफ़