दरख़्त रूह के झूमे परिंद गाने लगे
हमें उधर के मनाज़िर नज़र भी आने लगे
ख़ुश-आमदीद का मंज़र ग़ुरूब-ए-शाम में था
दर-ए-शफ़क़ पे फ़रिश्ते से मुस्कुराने लगे
फ़िराक़ ओ वस्ल के मा-बैन ये समाँ जैसे
उदास लय में कोई हम्द गुनगुनाने लगे
मैं एक साअत-ए-बे-ख़ुद में छू गया था जिसे
फिर उस को लफ़्ज़ तक आते हुए ज़माने लगे
ख़बर के मोड़ पे संग-ए-निशाँ थी बे-ख़बरी
ठिकाने आए मिरे होश या ठिकाने लगे
मुहीब रास्ते सरहद की सम्त जाते हुए
ज़रा सा और चले हम तो वो सुहाने लगे
इक अपने-आप से मिलना था 'साज़' जिस के लिए
रिक़ाबतें हुईं दरकार दोस्ताने लगे
ग़ज़ल
दरख़्त रूह के झूमे परिंद गाने लगे
अब्दुल अहद साज़