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दराज़-दस्त को दस्त-ए-अता कहीं न मिला | शाही शायरी
daraaz-dast ko dast-e-ata kahin na mila

ग़ज़ल

दराज़-दस्त को दस्त-ए-अता कहीं न मिला

जमील क़ुरैशी

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दराज़-दस्त को दस्त-ए-अता कहीं न मिला
बख़ील-ए-शहर था हाजत-रवा कहीं न मिला

फ़सील-ए-शब पे सहर का दिया जलाता कौन
कि कोई शख़्स मुझे जागता कहीं न मिला

लहू की आग थी रौशन हर इक हथेली पर
किसी भी हाथ पे रंग-ए-हिना कहीं न मिला

गिरा ख़ुद अपनी नज़र से तो पूछता फिर कौन
ख़ुदी गँवाई तो मुझ को ख़ुदा कहीं न मिला

सभी थे अपने ख़ुदाओं से बद-गुमाँ शायद
किसी ज़बान पे हर्फ़-ए-दुआ कहीं न मिला