EN اردو
डराएगी भला क्या तेरी गर्दिश आसमाँ मुझ को | शाही शायरी
Daraegi bhala kya teri gardish aasman mujhko

ग़ज़ल

डराएगी भला क्या तेरी गर्दिश आसमाँ मुझ को

अदील ज़ैदी

;

डराएगी भला क्या तेरी गर्दिश आसमाँ मुझ को
मिला रब से दुआ-ए-फ़ातिमा का साएबाँ मुझ को

चली है छोड़ कर तू क्यूँ बहार-ए-गुलिस्ताँ मुझ को
ख़ुदा जाने कहाँ ले जाए अब बाद-ए-ख़िज़ाँ मुझ को

मैं शुक्र-ए-रब का क़ाइल हूँ हवा कैसी ही चलती हो
पता आसानियों का दे गईं हैं सख़्तियाँ मुझ को

जला दूँगा हुसूल-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद की ख़ातिर
जलानी पड़ गईं गर सारी अपनी कश्तियाँ मुझ को

न शम-ए-अंजुमन में हूँ न परवानों का मेला है
कहाँ था मैं कहाँ ले आई है उम्र-ए-रवाँ मुझ को

सुना है सब भुला बैठे 'अदील'-ए-दिल-शिकस्ता को
न जाने आ रही हैं शाम से क्यूँ हिचकियाँ मुझ को