डरा के मौज ओ तलातुम से हम-नशीनों को
यही तो हैं जो डुबोया किए सफ़ीनों को
शराब हो ही गई है ब-क़द्र-ए-पैमाना
ब-अज़्म-ए-तर्क निचोड़ा जब आस्तीनों को
जमाल-ए-सुब्ह दिया रू-ए-नौ-बहार दिया
मिरी निगाह भी देता ख़ुदा हसीनों को
हमारी राह में आए हज़ार मय-ख़ाने
भुला सके न मगर होश के क़रीनों को
कभी नज़र भी उठाई न सू-ए-बादा-ए-नाब
कभी चढ़ा गए पिघला के आबगीनों को
यही जहाँ है जहन्नम यही जहाँ फ़िरदौस
बताओ आलम-ए-बाला के सैर-बीनों को
हुए हैं क़ाफ़िले ज़ुल्मत की वादियों में रवाँ
चराग़-ए-राह किए ख़ूँ-चकाँ जबीनों को
तुझे न माने कोई तुझ को इस से क्या 'मजरूह'
चल अपनी राह भटकने दे नुक्ता-चीनों को
ग़ज़ल
डरा के मौज ओ तलातुम से हम-नशीनों को
मजरूह सुल्तानपुरी