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दर पे उस शोख़ के जब जा बैठा | शाही शायरी
dar pe us shoKH ke jab ja baiTha

ग़ज़ल

दर पे उस शोख़ के जब जा बैठा

मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही

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दर पे उस शोख़ के जब जा बैठा
यार सब कहते हैं अच्छा बैठा

ख़ूबी-ए-क़िस्मत-ए-क़ासिद देखो
पास उस शोख़ के क्या जा बैठा

है हबाब-ए-लब-ए-दरिया इंसाँ
जब ज़रा सर को उठाया बैठा

ज़ोफ़-ए-पीरी से बना नक़्श-ए-क़दम
मैं वहीं का हुआ जिस जा बैठा

सूरत-ए-बाद रहा सर-गरदाँ
ख़ाक की तरह मैं उट्ठा बैठा

पाँव फूले जो तिरे कूचे में
काट के दस्त-ए-तमन्ना बैठा

बहर-ए-हस्ती में हबाबों की तरह
सैकड़ों बार मैं उट्ठा बैठा

कब से तेरा फ़लक-ए-शो'बदा-बाज़
देखता हूँ मैं तमाशा बैठा

सामने किस के झुकाया सर को
किस लिए शैख़ तू उट्ठा बैठा

न तो नाला है न अफ़्ग़ाँ ऐ दिल
किस लिए चुप है अकेला बैठा

ख़्वाब-ए-सैर-ए-चमन-ए-आलम है
क्या दिल-ए-ज़ार है फूला बैठा

दामन-ए-दिल पे लगा दाग़-ए-जुनूँ
मुल्क पर इश्क़ का सिक्का बैठा

नक़्द-ए-दिल था जो बिज़ाअ'त में मिरी
इश्क़ में उस को भी खो-खा बैठा

जो गया मुल्क-ए-अदम कौन गया
उस के कूचे में जो बैठा बैठा

दिल को है जज़्बा-ए-उल्फ़त शायद
बक रहा है जो अकेला बैठा

चल बसे 'मुंतही' सब यार तिरे
तू यहाँ करता है अब क्या बैठा