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दर पे तेरे जो सर झुका लूँगा | शाही शायरी
dar pe tere jo sar jhuka lunga

ग़ज़ल

दर पे तेरे जो सर झुका लूँगा

विजय शर्मा अर्श

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दर पे तेरे जो सर झुका लूँगा
इस जहाँ में सुकून पा लूँगा

चाहे किरदार तुम नया लेना
मैं तो मेले से आइना लूँगा

फिर न दस्तक से नींद टूटेगी
आज दरवाज़ा तोड़ डालूँगा

कुछ भी माँगे कोई दुआओं में
मैं मुसाफ़िर हूँ रास्ता लूँगा

आग तो आग है जलाएगी
अश्क भी अश्क है बुझा लूँगा

अपनी गहराई में मुकम्मल हूँ
तेरी ऊँचाइयों से क्या लूँगा

रूह और भी मिरी चमक जाए
तेरे ज़ख़्मों को ऐसे पा लूँगा

सच तो ये है कि सच नहीं कुछ भी
सिर्फ़ अफ़्साने का मज़ा लूँगा

तुम जो पा जाओ राह-ए-इश्क़ 'विजय'
रफ़्ता-रफ़्ता तुम्हें मैं पा लूँगा