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दर-ओ-दीवार पे शक्लें सी बनाने आई | शाही शायरी
dar-o-diwar pe shaklen si banane aai

ग़ज़ल

दर-ओ-दीवार पे शक्लें सी बनाने आई

कैफ़ भोपाली

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दर-ओ-दीवार पे शक्लें सी बनाने आई
फिर ये बारिश मेरी तन्हाई चुराने आई

ज़िंदगी बाप की मानिंद सज़ा देती है
रहम-दिल माँ की तरह मौत बचाने आई

आज कल फिर दिल-ए-बर्बाद की बातें हैं वही
हम तो समझे थे कि कुछ अक़्ल ठिकाने आई

दिल में आहट सी हुई रूह में दस्तक गूँजी
किस की ख़ुश-बू ये मुझे मेरे सिरहाने आई

मैं ने जब पहले-पहल अपना वतन छोड़ा था
दूर तक मुझ को इक आवाज़ बुलाने आई

तेरी मानिंद तिरी याद भी ज़ालिम निकली
जब भी आई है मिरा दिल ही दुखाने आई