दर-ओ-दीवार पे हिजरत के निशाँ देख आएँ
आओ हम अपने बुज़ुर्गों के मकाँ देख आएँ
आओ भीगी हुई आँखों से पढ़ें नौहा-ए-दिल
आओ बिखरे हुए रिश्तों का ज़ियाँ देख आएँ
टूटा टूटा हुआ दिल ले के फिरें गलियों में
कच्ची मिट्टी के खिलौनों की दुकाँ देख आएँ
रौशनी के कहीं आसार तो बाक़ी होंगे
आओ पिघली हुई शम्ओं का धुआँ देख आएँ
जिन दरख़्तों के तले रक़्स-ए-सबा होता था
सूखे पत्तों का बरसना भी वहाँ देख आएँ
अब फ़रिश्तों के सिवा कोई न आता होगा
कौन देता है ख़राबों में अज़ाँ देख आएँ
मुद्दतों ब'अद मुहाजिर की तरह आए हैं
रूठ जाए न खंडर आओ मियाँ देख आएँ
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ग़ज़ल
दर-ओ-दीवार पे हिजरत के निशाँ देख आएँ
क़ैसर-उल जाफ़री