डर नहीं थूकते हैं ख़ून जो दुख पाए हुए
लख़्त-ए-दिल बन के निकल जाएँगे ग़म खाए हुए
दम निकलना है दिल-ए-ज़ार का है हाल अख़ीर
नाले आते हैं लबों तक मिरे घबराए हुए
ये बहाना है मिरे क़त्ल पे राज़ी नहीं तीर
ग़ुल मचाती है कमाँ हाथों को फैलाए हुए
हम तो मर जाएँगे हर गुल पे अदम में भी 'रशीद'
जाते हैं गुलशन-ए-फ़ानी की हवा खाए हुए
ग़ज़ल
डर नहीं थूकते हैं ख़ून जो दुख पाए हुए
रशीद लखनवी