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दर किसी का खुला नहीं लगता | शाही शायरी
dar kisi ka khula nahin lagta

ग़ज़ल

दर किसी का खुला नहीं लगता

रफ़अत शमीम

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दर किसी का खुला नहीं लगता
शहर ये आश्ना नहीं लगता

ग़म है फ़िक्र-ए-मआ'श में ऐसा
आदमी का पता नहीं लगता

दोस्त जब से हुए हमारे तुम
कोई दुश्मन बुरा नहीं लगता

यूँ तो मिलते हैं टूट कर लेकिन
रब्त वो देर-पा नहीं लगता

वा'दा हूरों का बा'द मरने के
बंदगी का सिला नहीं लगता