दर-ए-शही से दर-ए-गदाई पे आ गया हूँ
मैं नर्म बिस्तर से चारपाई पे आ गया हूँ
बदन की सारी तमाज़तें माँद पड़ रही हैं
वो बेबसी है कि पारसाई पे आ गया हूँ
नहीं है चेहरे का हाल पढ़ने की ख़ू किसी में
सुकूत तोड़ा है लब-कुशाई पे आ गया हूँ
हुसूल-ए-गंज-ए-अता-ए-ग़ैबी के वास्ते अब
सिफ़ात-ए-रब्बी की जुब्बा-साई पे आ गया हूँ
उतार फेंका मुसालहत का लिबास मैं ने
सुकूत तोड़ा है लब-कुशाई पे आ गया हूँ
फ़ुतूर मुझ में नहीं है कोई सबब तो होगा
दुआएँ देता हुआ दुहाई पे आ गया हूँ
'अली' में सब्ज़े को रौंदने की सज़ा के बाइ'स
बरहना-सर से बरहना-पाई पे आ गया हूँ
ग़ज़ल
दर-ए-शही से दर-ए-गदाई पे आ गया हूँ
अली मुज़म्मिल