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दर-ए-शही से दर-ए-गदाई पे आ गया हूँ | शाही शायरी
dar-e-shahi se dar-e-gadai pe aa gaya hun

ग़ज़ल

दर-ए-शही से दर-ए-गदाई पे आ गया हूँ

अली मुज़म्मिल

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दर-ए-शही से दर-ए-गदाई पे आ गया हूँ
मैं नर्म बिस्तर से चारपाई पे आ गया हूँ

बदन की सारी तमाज़तें माँद पड़ रही हैं
वो बेबसी है कि पारसाई पे आ गया हूँ

नहीं है चेहरे का हाल पढ़ने की ख़ू किसी में
सुकूत तोड़ा है लब-कुशाई पे आ गया हूँ

हुसूल-ए-गंज-ए-अता-ए-ग़ैबी के वास्ते अब
सिफ़ात-ए-रब्बी की जुब्बा-साई पे आ गया हूँ

उतार फेंका मुसालहत का लिबास मैं ने
सुकूत तोड़ा है लब-कुशाई पे आ गया हूँ

फ़ुतूर मुझ में नहीं है कोई सबब तो होगा
दुआएँ देता हुआ दुहाई पे आ गया हूँ

'अली' में सब्ज़े को रौंदने की सज़ा के बाइ'स
बरहना-सर से बरहना-पाई पे आ गया हूँ