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दर-ए-ख़ज़ीना-ए-सद-राज़ खोलता है कोई | शाही शायरी
dar-e-KHazina-e-sad-raaz kholta hai koi

ग़ज़ल

दर-ए-ख़ज़ीना-ए-सद-राज़ खोलता है कोई

ख़ुर्शीद रिज़वी

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दर-ए-ख़ज़ीना-ए-सद-राज़ खोलता है कोई
न जाने कौन है वो मुझ में बोलता है कोई

अजब कुरेद अजब बेकली सी है जैसे
मुझे मिरी रग-ए-जाँ तक टटोलता है कोई

हुजूम है मिरे सीने में अब्र-पारों का
गुहर बिखेरने वाला हूँ रोलता है कोई

हयात-ओ-मर्ग-ओ-तुलूअ-ओ-ग़ुरूब है दुनिया
कि पर समेटता है कोई तोलता है कोई

हवा का लम्स ये बूँदें ख़ुनुक ख़ुनुक 'ख़ुर्शीद'
मुझे तो आज फ़ज़ाओं में घोलता है कोई