दर-ए-ख़ज़ीना-ए-सद-राज़ खोलता है कोई
न जाने कौन है वो मुझ में बोलता है कोई
अजब कुरेद अजब बेकली सी है जैसे
मुझे मिरी रग-ए-जाँ तक टटोलता है कोई
हुजूम है मिरे सीने में अब्र-पारों का
गुहर बिखेरने वाला हूँ रोलता है कोई
हयात-ओ-मर्ग-ओ-तुलूअ-ओ-ग़ुरूब है दुनिया
कि पर समेटता है कोई तोलता है कोई
हवा का लम्स ये बूँदें ख़ुनुक ख़ुनुक 'ख़ुर्शीद'
मुझे तो आज फ़ज़ाओं में घोलता है कोई

ग़ज़ल
दर-ए-ख़ज़ीना-ए-सद-राज़ खोलता है कोई
ख़ुर्शीद रिज़वी