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दर-ए-इम्काँ से गुज़र कर सर-ए-मंज़र आ कर | शाही शायरी
dar-e-imkan se guzar kar sar-e-manzar aa kar

ग़ज़ल

दर-ए-इम्काँ से गुज़र कर सर-ए-मंज़र आ कर

शाहीन अब्बास

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दर-ए-इम्काँ से गुज़र कर सर-ए-मंज़र आ कर
हम अजब लहर में हैं अपने नए घर आ कर

जिसे जाना ही नहीं अपने किनारों से जुदा
उसे देखा भी नहीं मौज से बाहर आ कर

आतिश-ए-ग़म पे नज़र की है कुछ ऐसे कि ये आँच
बात कर सकती है अब मिरे बराबर आ कर

तू ने किस हर्फ़ के आहंग में ढाला था मुझे
साँस भी टूट रहा है सर-ए-महज़र आ कर

उसे देखा था ख़त-ए-ख़्वाब के उस पार कभी
ये सितारा जो गिरा है मिरे अंदर आ कर

इक सदा कोह-ए-निदा से किसी अपने की सदा
रोने लग जाती है इस दश्त में अक्सर आ कर

शाख़-ता-शाख़ अजब आलम-ए-वहशत है अभी
ताइर-ए-जाँ कभी ठहरा था मिरे घर आ कर