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दर-ब-दर की ख़ाक पेशानी पे मल कर आएगा | शाही शायरी
dar-ba-dar ki KHak peshani pe mal kar aaega

ग़ज़ल

दर-ब-दर की ख़ाक पेशानी पे मल कर आएगा

सुल्तान अख़्तर

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दर-ब-दर की ख़ाक पेशानी पे मल कर आएगा
घूम-फिर कर रास्ता फिर मेरे ही घर आएगा

सामने आँखों के फिर यख़-बस्ता मंज़र आएगा
धूप जम जाएगी आँगन में दिसम्बर आएगा

शोर कैसा अपनी आहट भी न सुन पाओगे तुम
इस सफ़र में ऐसा सन्नाटा तो अक्सर आएगा

जिस की ख़ातिर शीशा-ए-आवाज़ रौशन है बहुत
उस की जानिब से भी ख़ामोशी का पत्थर आएगा

सेहन-ए-दिल में कब से तन्हाई के ख़ेमे नस्ब हैं
अब न शायद मौसम-ए-हंगामा-पर्वर आएगा

ज़िंदगी भर हम इसी उम्मीद पर चलते रहे
अब के सहरा पार कर लें तो समुंदर आएगा

मुनहदिम हो जाएगी 'अख़्तर' फ़सील-ए-इंतिशार
जब नवाह-ए-जाँ में वीरानी का लश्कर आएगा