दर-ब-दर की ख़ाक पेशानी पे मल कर आएगा
घूम-फिर कर रास्ता फिर मेरे ही घर आएगा
सामने आँखों के फिर यख़-बस्ता मंज़र आएगा
धूप जम जाएगी आँगन में दिसम्बर आएगा
शोर कैसा अपनी आहट भी न सुन पाओगे तुम
इस सफ़र में ऐसा सन्नाटा तो अक्सर आएगा
जिस की ख़ातिर शीशा-ए-आवाज़ रौशन है बहुत
उस की जानिब से भी ख़ामोशी का पत्थर आएगा
सेहन-ए-दिल में कब से तन्हाई के ख़ेमे नस्ब हैं
अब न शायद मौसम-ए-हंगामा-पर्वर आएगा
ज़िंदगी भर हम इसी उम्मीद पर चलते रहे
अब के सहरा पार कर लें तो समुंदर आएगा
मुनहदिम हो जाएगी 'अख़्तर' फ़सील-ए-इंतिशार
जब नवाह-ए-जाँ में वीरानी का लश्कर आएगा
ग़ज़ल
दर-ब-दर की ख़ाक पेशानी पे मल कर आएगा
सुल्तान अख़्तर