दर-ब-दर जाऊँ ये कहाँ मुमकिन
मैं बिखर जाऊँ ये कहाँ मुमकिन
मुझ से होगी यज़ीद की बैअ'त
मरता मर जाऊँ ये कहाँ मुमकिन
इश्क़ में बेवफ़ाई का इल्ज़ाम
तुझ पे धर जाऊँ ये कहाँ मुमकिन
आज उन से है वस्ल का वा'दा
आज मर जाऊँ ये कहाँ मुमकिन
सब जिधर जा रहे हूँ ऐ 'मज़हर'
मैं उधर जाऊँ ये कहाँ मुमकिन
ग़ज़ल
दर-ब-दर जाऊँ ये कहाँ मुमकिन
मज़हर अब्बास