दर आया अंधेरा आँखों में और सब मंज़र धुँदलाए हैं 
ये वक़्त है दिल के डूबने का और शाम के गहरे साए हैं 
ये ज़रा ज़रा सी ख़ुशियाँ भी तो लाख जतन से मिलती हैं 
मत छेड़ो रेत-घरोंदों को किस मुश्किल से बन पाए हैं 
वो लम्हा दिल की अज़िय्यत का तो गुज़र गया अब सोचने दो 
क्या कहना होगा उन से मुझे जो पुर्सिश-ए-ग़म को आए हैं 
जलती हुई शम्ओं' ने अक्सर एहसास की राख को भड़काया 
क़ुर्बत में दमकते चेहरों की तन्हाई के दुख याद आए हैं 
सोचों को तर-ओ-ताज़ा रक्खा 'शबनम' तिरे पैहम अश्कों ने 
हैरत है कि अहद-ए-ख़िज़ाँ में भी ये फूल नहीं कुम्हलाए हैं
        ग़ज़ल
दर आया अंधेरा आँखों में और सब मंज़र धुँदलाए हैं
शबनम शकील

