दर आप का हम छोड़ के अब जाएँ कहाँ और
है तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ में ख़ुद अपना ही ज़ियाँ और
आसान उठाना न था कुछ बार-ए-ख़िलाफ़त
जुज़ मेरे उठाता भी कोई बार-ए-गराँ और
दिल है कि कोई चौब-ए-तर-ओ-ताज़ा-ओ-शादाब
जब आग सुलगती है तो उठता है धुआँ और
है फ़स्ल-ए-बहाराँ में चमन शो'ला-ब-दामाँ
अब देखिए क्या होता है अंदाज़-ए-ख़िज़ाँ और
आज़ादी-ए-गुफ़्तार-ओ-ख़यालात का इज़हार
बर्बादी के अब इस से भी बढ़ के हैं निशाँ और
जब शीशा-ए-दिल पर मिरे ज़ंगार है आता
क्या कहिए चमकता है मिरा दाग़-ए-निहाँ और
मैं शाख़-ए-समर-दार के मानिंद हूँ 'माहिर'
मिलता हूँ किसी से तो वो करता है गुमाँ और
ग़ज़ल
दर आप का हम छोड़ के अब जाएँ कहाँ और
माहिर आरवी