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दमक उठी है फ़ज़ा माहताब-ए-ख़्वाब के साथ | शाही शायरी
damak uThi hai faza mahtab-e-KHwab ke sath

ग़ज़ल

दमक उठी है फ़ज़ा माहताब-ए-ख़्वाब के साथ

बद्र-ए-आलम ख़लिश

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दमक उठी है फ़ज़ा माहताब-ए-ख़्वाब के साथ
धड़क रहा है ये दिल किस रबाब-ए-ख़्वाब के साथ

हटे ग़ुबार जो लौ से तो मेरी जोत जगे
जलूँ मैं फिर से नई आब-ओ-ताब-ए-ख़्वाब के साथ

है सौ अदाओं से उर्यां फ़रेब-ए-रंग-ए-अना
बरहना होती है लेकिन हिजाब-ए-ख़्वाब के साथ

तो क्यूँ सज़ा में हो तन्हा गुनाहगार कोई
यहाँ तो जीते हैं सब इर्तिकाब-ए-ख़्वाब के साथ

शरार-ए-संग से संगलाख़ हो गए तलवे
हुआ न कुछ दिल-ए-ख़ाना-ख़राब-ए-ख़्वाब के साथ

सुलाये रक्खा हमें भी फ़रेब-ए-मंज़िल ने
चले थे हम भी किसी हम-रकाब-ए-ख़्वाब के साथ

सुराग़ मिलता नहीं प्यास के सफ़ीनों का
भँवर भी होते हैं शायद सराब-ए-ख़्वाब के साथ

हक़ीक़तों की चटानों पे चल गया जादू
लो वो भी चलने लगीं अब सहाब-ए-ख़्वाब के साथ

अजब नहीं वही मंज़र नज़ारा बन जाए
डरा रहा है ये डर इज़्तिराब-ए-ख़्वाब के साथ

दराड़ें रह गईं बेदारियों के नक़्शे पर
न हम रहे न वो तुम इंक़लाब-ए-ख़्वाब के साथ

निगाह-ए-दीदा-ए-ता'बीर के हवाले 'ख़लिश'
है ये बयाज़ अलग इंतिख़ाब-ए-ख़्वाब के साथ