दमक रहा था बहुत यूँ तो पैरहन उस का
ज़रा से लम्स ने रौशन किया बदन उस का
वो ख़ाक उड़ाने पे आए तो सारे दश्त उस के
चले गुदाज़-क़दम तो चमन चमन उस का
वो झूट सच से परे रात कुछ सुनाता था
दिलों में रास्त उतरता गया सुख़न उस का
अजीब आब-ओ-हवा का वो रहने वाला है
मिलेगा ख़्वाब ओ ख़ला में कहीं वतन उस का
तिरी तरफ़ से न क्या क्या सितम हुए उस पर
मैं जानता हूँ बहुत दोस्त भी न बन उस का
वो रोज़ शाम से शमएँ धुआँ धुआँ उस की
वो रोज़ सुब्ह उजाला किरन किरन उस का
मिरी नज़र में है महफ़ूज़ आज भी 'बानी'
बदन कसा हुआ मल्बूस बे-शिकन उस का

ग़ज़ल
दमक रहा था बहुत यूँ तो पैरहन उस का
राजेन्द्र मनचंदा बानी