दम ले ऐ कोहकन अब तेशा-ज़नी ख़ूब नहीं
जान-ए-शीरीं को न खो कोह-कनी ख़ूब नहीं
टुक तू हँस-बोल ये ग़ुंचा-दहनी ख़ूब नहीं
रश्क-ए-गुल इतनी भी हाँ कम-सुख़नी ख़ूब नहीं
सर पे कुमरी को बिठाया तो है तू ने पर सर्व
तेरी आज़ाद-वशी बे-कफ़नी ख़ूब नहीं
क़ाबिल-ए-चश्म-नुमाई है तू ऐ तिफ़्ल-ए-सरिश्क
अबतर इतना भी न हो नाशुदनी ख़ूब नहीं
फ़स्ल-ए-गुल आने दे दिखला न अभी से ज़ंजीर
ये रविश मौज-ए-नसीम-ए-चमनी ख़ूब नहीं
मनअ हँसने से तो करता नहीं ऐ बर्क़-वशो
फिर शरारत से ये चश्मक-ज़दनी ख़ूब नहीं
हो सके तुझ से तो कर मुर्ग़-ए-चमन गुल का इलाज
उस को बीमारी-ए-आज़ा-शिकनी ख़ूब नहीं
कोई दम और भी उस अबरू-ए-पुर-ख़म को छू
अस्फ़हानी ये अभी तेग़ बनी ख़ूब नहीं
चश्म से उस की न कर दाव-ए-हम-चश्मी देख
कि ख़ता ऐसी ग़ज़ाल-ख़ुतनी ख़ूब नहीं
मार खाएगा वो ख़य्यात कि जिस ने तेरे
बंद जामे के लिए नाग-फनी ख़ूब नहीं
मुँह को देख अपने तू और उस के लब-ए-लाल को देख
रू-कशी उस से अक़ीक़-ए-यमनी ख़ूब नहीं
तर्क चश्म-ए-बुत-ए-बद-केश ख़याल उस का छोड़
मुर्ग़-ए-दिल सहमे है नावक-फ़गनी ख़ूब नहीं
शाख़-ए-गुल है कि कमर बाद से लचके है तिरी
ऐ मियाँ इतनी भी नाज़ुक-बदनी ख़ूब नहीं
मैं भी हूँ बादिया-पैमा-ए-जुनूँ ऐ मजनूँ
इस क़दर आगे मिरे लाफ़-ज़नी ख़ूब नहीं
छलनी काँटों से हुए गो मिरे तलवे लेकिन
दश्त-ए-वहशत की अभी ख़ाक छनी ख़ूब नहीं
ज़हर खा जाऊँगा ऐ साक़ी-ए-पैमाना-ब-कफ़
बाज़ आ जाने दे पैमाँ-शिकनी ख़ूब नहीं
ग़ज़ल
दम ले ऐ कोहकन अब तेशा-ज़नी ख़ूब नहीं
शाह नसीर