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दम-ए-सुख़न ही तबीअ'त लहू लहू की जाए | शाही शायरी
dam-e-suKHan hi tabiat lahu lahu ki jae

ग़ज़ल

दम-ए-सुख़न ही तबीअ'त लहू लहू की जाए

अब्बास ताबिश

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दम-ए-सुख़न ही तबीअ'त लहू लहू की जाए
कोई तो हो कि तिरी जिस से गुफ़्तुगू की जाए

ये नुक्ता कटते शजर ने मुझे क्या ता'लीम
कि दुख तो मिलते हैं गर ख़्वाहिश-ए-नुमू की जाए

कशीदा-कार-ए-अज़ल तुझ को ए'तिराज़ तो नईं
कहीं कहीं से अगर ज़िंदगी रफ़ू की जाए

मैं ये भी चाहता हूँ इश्क़ का न हो इल्ज़ाम
मैं ये भी चाहता हूँ तेरी आरज़ू की जाए

मोहब्बतों में तू शजरे का भी नहीं मज़कूर
तू चाहता है कि मस्लक पे गुफ़्तुगू की जाए

मिरी तरह से उजड़ कर बसाएँ शहर-ए-सुख़न
जो नक़्ल करनी है मेरी तो हू-ब-हू की जाए