दम-ए-अख़ीर भी हम ने ज़बाँ से कुछ न कहा
जहाँ से उठ गए अहल-ए-जहाँ से कुछ न कहा
चली जो कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ तो चलने दी
रुकी तो कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ से कुछ न कहा
ख़ता-ए-इश्क़ की इतनी सज़ा ही काफ़ी थी
बदल के रह गए तेवर ज़बाँ से कुछ न कहा
बला से ख़ाक हुआ जल के आशियाँ अपना
तड़प के रह गए बर्क़-ए-तपाँ से कुछ न कहा
गिला किया न कभी उन से बेवफ़ाई का
ज़बाँ थी लाख दहन में ज़बाँ से कुछ न कहा
ख़ुशी से रंज सहे 'नाज़' उम्र भर हम ने
ख़ुदा-गवाह कभी आसमाँ से कुछ न कहा
ग़ज़ल
दम-ए-अख़ीर भी हम ने ज़बाँ से कुछ न कहा
शेर सिंह नाज़ देहलवी