दम-भर जो न देखे तुझे ऐ रश्क-ए-परी आँख 
मिज़्गाँ की ज़बानों से करे नौहागरी आँख 
जम जाए तसव्वुर जो तिरे बूटे से क़द का 
पथरा के बने साफ़ अक़ीक़-ए-शजरी आँख 
ले लीजिए शीशे हैं सफ़ेद अश्क नहीं हैं 
नम बादा-कशी से कि गई शीशा-गरी आँख 
जाओ जो चमन को तो करे फ़र्श-ए-रह-ए-नाज़ 
बुलबुल जिगर-ओ-फ़ाख़ता दिल कब्क-ए-दरी आँख 
देखा जिसे बिस्मिल किया ताका जिसे मारा 
उस आँख से डरिए जो ख़ुदा से न डरी आँख 
जुम्बिश उधर उस को है तो गर्दिश इधर इस को 
अबरू है कि शमशीर सिपर है कि फिरी आँख 
क्या दीद के क़ाबिल तिरे कूचे की ज़मीं है 
हर गाम है नक़्श-ए-क़दम-ए-रह-गुज़री आँख 
तुम झाँक रहे हो ये तुम्हें ताक रहा है 
क्यूँ दीदा-ए-रौज़न पे अजी तुम ने धरी आँख 
कहती ही तिरी नाफ़-ओ-शिकम देख के बुलबुल 
रुख़्सार-ए-गुल-ए-तर पे है नर्गिस की धरी आँख 
ऐ माह ये सब चश्म-ए-फ़लक के हैं इशारे 
ऐसे तो न थी माइल-ए-बे-दाद-गरी आँख 
नर्गिस जो गुलिस्ताँ में है तो दश्त में आहू 
हर रंग में दिखलाने लगी जल्वागरी आँख 
गद का कहीं वो सुर्मा का दुम्बाला उठाए 
है दस्त-ए-मिज़ा में लिए पुतली की फिरी आँख 
देखे वो अगर चश्म-ए-सियह और ये ख़त-ए-सब्ज़ 
नर्गिस की सियह आँख हो तूती की हरी आँख
        ग़ज़ल
दम-भर जो न देखे तुझे ऐ रश्क-ए-परी आँख
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

