दम-ब-ख़ुद हम तो डरे बैठे हैं
वो हबाबों से भरे बैठे हैं
क़त्ल होने पे मिरे बैठे हैं
सर हथेली पे धरे बैठे हैं
दिल से नज़दीक डरे बैठे हैं
दूर ख़ातिर से डरे बैठे हैं
वो जुआरी हैं जो नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ
इश्क़-बाज़ी में हरे बैठे हैं
हाल-ए-दिल क्या कहें हम सोख़्ता-जाँ
मिस्ल-ए-क़ुलियाँ वो भरे बैठे हैं
ये जहाँ-दीदा हैं वो आहू-चश्म
इक ज़माने को चरे बैठे हैं
क़स्र-ए-तन ख़ाक हो आ जाएँ कहाँ
घर मिटा कर निघरे बैठे हैं
बुत हैं ख़ामोश जो बुत-ख़ाने में
ब-ख़ुदा तुझ से डरे बैठे हैं
कर चुके जामा-ए-असली सद-चाक
हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं
फूट बहने को फफूलों की तरह
अश्क आँखों में भरे बैठे हैं
जीते-जी मुर्दा-दिली से ऐ 'शाद'
ज़िंदा दरगोर मरे बैठे हैं
ग़ज़ल
दम-ब-ख़ुद हम तो डरे बैठे हैं
शाद लखनवी