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दलील-ए-कुन है मगर दर्द-ए-ला-दवा निकली | शाही शायरी
dalil-e-kun hai magar dard-e-la-dawa nikli

ग़ज़ल

दलील-ए-कुन है मगर दर्द-ए-ला-दवा निकली

सय्यद अमीन अशरफ़

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दलील-ए-कुन है मगर दर्द-ए-ला-दवा निकली
ये काएनात अजब हैरत-आज़मा निकली

ये माना सच है कोई ग़म सदा नहीं रहता
ख़ुशी मिली थी तो वो भी गुरेज़-पा निकली

हवा की तरह से उड़ जाऊँगा जहाँ भी रहूँ
पए ख़बर क़फ़स-ए-रंग से सदा निकली

कहाँ से आई हवा इस उजाड़ मंज़र में
जो घर से निकली तो वो भी शिकस्ता-पा निकली

वो नीम-शब वो रुख़-ए-माहताब-ओ-अब्र-ए-सियह
शिकस्तगी थी कि चश्म-ए-फ़लक-नुमा निकली

वो मौज-ए-मय थी जो चमका गई उदासी को
किसी की ख़ंदा-लबी बू-ए-आश्ना निकली

हया के साथ तक़ाज़ा-ए-क़हर-ओ-महर भी है
तिरी नज़र से तबीअ'त मिरी जुदा निकली