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दहन खोलेंगी अपनी सीपियाँ आहिस्ता आहिस्ता | शाही शायरी
dahan kholengi apni sipiyan aahista aahista

ग़ज़ल

दहन खोलेंगी अपनी सीपियाँ आहिस्ता आहिस्ता

अब्बास ताबिश

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दहन खोलेंगी अपनी सीपियाँ आहिस्ता आहिस्ता
गुज़र दरिया से ऐ अब्र-ए-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता

लहू तो इश्क़ के आग़ाज़ ही में जलने लगता है
मगर होंटों तक आता है धुआँ आहिस्ता आहिस्ता

पलटना भी अगर चाहें पलट कर जा नहीं सकते
कहाँ से चल के हम आए कहाँ आहिस्ता आहिस्ता

कहीं लाली भरी थाली न गिर जाए समुंदर में
चला है शाम का सूरज कहाँ आहिस्ता आहिस्ता

अभी इस धूप की छतरी तले कुछ फूल खिलने दो
ज़मीं बदलेगी अपना आसमाँ आहिस्ता आहिस्ता

किसे अब टूट के रोने की फ़ुर्सत कार-ए-दुनिया में
चली जाती है इक रस्म-ए-फ़ुग़ाँ आहिस्ता आहिस्ता

मिरे दिल में किसी हसरत के पस-अंदाज़ होने तक
निमट ही जाएगा कार-ए-जहाँ आहिस्ता आहिस्ता

मकीं जब नींद के साए में सुस्ताने लगें 'ताबिश'
सफ़र करते हैं बस्ती के मकाँ आहिस्ता आहिस्ता