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दहकती ख़्वाहिशों में जल रहा हूँ | शाही शायरी
dahakti KHwahishon mein jal raha hun

ग़ज़ल

दहकती ख़्वाहिशों में जल रहा हूँ

करामत बुख़ारी

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दहकती ख़्वाहिशों में जल रहा हूँ
कभी क़ातिल कभी मक़्तल रहा हूँ

मिरा पीछा न कर ऐ ज़िंदगानी
मैं राह-ए-रफ़्तगाँ पे चल रहा हूँ

मैं ऐसा अज़दहा हूँ ख़्वाहिशों का
ख़ुद अपना ख़ून पी कर पल रहा हूँ

रहा हूँ वाक़िफ़-ए-राज़-ए-हक़ीक़त
ब-ज़ाहिर बे-ख़बर पागल रहा हूँ

रिदा-ए-तिश्नगी ओढ़े हुए मैं
समुंदर के किनारे चल रहा हूँ

गवाही के लिए काफ़ी रहेगा
मैं अपना ख़ून मुँह पे मल रहा हूँ

कोई भूला हुआ नग़्मा हूँ दिल का
वफ़ा के आँसुओं में ढल रहा हूँ