दफ़अ'तन दिल में किसी याद ने ली अंगड़ाई
इस ख़राबे में ये दीवार कहाँ से आई
आज खुलने ही को था दर्द-ए-मोहब्बत का भरम
वो तो कहिए कि अचानक ही तिरी याद आई
बस यूँ ही दिल को तवक़्क़ो' सी है तुझ से वर्ना
जानता हूँ कि मुक़द्दर है मिरा तन्हाई
नश्शा-ए-तल्ख़ी-ए-अय्याम उतरता ही नहीं
तेरी नज़रों ने गुलाबी तो बहुत छलकाई
यूँ तो हर शख़्स अकेला है भरी दुनिया में
फिर भी हर दिल के मुक़द्दर में नहीं तन्हाई
डूबते चाँद पे रोई हैं हज़ारों आँखें
मैं तो रोया भी नहीं तुम को हँसी क्यूँ आई
रात भर जागते रहते हो भला क्यूँ 'नासिर'
तुम ने ये दौलत-ए-बेदार कहाँ से पाई
ग़ज़ल
दफ़अ'तन दिल में किसी याद ने ली अंगड़ाई
नासिर काज़मी