दावा तो किया हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ का सब ने
दुनिया का मगर रूप बढ़ाया तिरी छब ने
तू नींद में भी मेरी तरफ़ देख रहा था
सोने न दिया मुझ को सियह-चश्मी-ए-शब ने
हर ज़ख़्म पे देखी हैं तिरे प्यार की मोहरें
ये गुल भी खिलाए हैं तेरी सुर्ख़ी-ए-लब ने
ख़ुशबू-ए-बदन आई है फिर मौज-ए-सबा से
फिर किस को पुकारा है तिरे शहर तरब ने
दरकार है मुझ को तो फ़क़त इज़्न-ए-तबस्सुम
पत्थर से अगर फूल उगाए मिरे रब ने
वो हुस्न है इंसान की मेराज-ए-तसव्वुर
जिस हुस्न को पूजा है मिरे शेर ओ अदब ने
ग़ज़ल
दावा तो किया हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ का सब ने
अहमद नदीम क़ासमी