दास्तान-ए-फ़ितरत है ज़र्फ़ की कहानी है
जितना उथला दरिया है उतना तेज़ पानी है
जिन लबों ने सींचा है तिश्नगी के ख़ारों को
अब उन्हीं के हिस्से में जाम-ए-कामरानी है
फिर से खुलने वाला है कोई ताज़ा गुल शायद
बाग़बाँ की फिर हम पर ख़ासी मेहरबानी है
अक़्ल कब से भटके है नफ़रतों की वादी में
प्यार की मगर अब भी दिल पे हुक्मरानी है
ज़ख़्म खाते रहते हैं मुस्कुराते रहते हैं
हम वफ़ा-शनासों की ये अदा पुरानी है
बर्फ़ बन गए अरमाँ मुंजमिद हुए जज़्बे
ज़ीस्त के समुंदर में कितना सर्द पानी है
अपने साए से हम ख़ुद ऐ हयात डरते हैं
मस्लहत की दुनिया में कितनी बद-गुमानी है
ग़ज़ल
दास्तान-ए-फ़ितरत है ज़र्फ़ की कहानी है
हयात वारसी