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दारू-ए-होश-रुबा नर्गिस-ए-बीमार तो हो | शाही शायरी
daru-e-hosh-ruba nargis-e-bimar to ho

ग़ज़ल

दारू-ए-होश-रुबा नर्गिस-ए-बीमार तो हो

अख़्तर ओरेनवी

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दारू-ए-होश-रुबा नर्गिस-ए-बीमार तो हो
अब इनाँ-गीर-ख़िरद गेसू-ए-ख़मदार तो हो

हुस्न का नाज़-ए-तजल्ली है नियाज़-आमादा
इश्क़-ए-आदाब-ए-तमन्ना के सज़ा-वार तो हो

जुरअत-ए-शौक़ से पिंदार-ए-करम झुक के मिले
हौसला-मंद कोई ऐसा गुनहगार तो हो

लाला-कारी से रग-ए-जाँ के गुलिस्ताँ लहके
हर-नफ़स एक लचकती हुई तलवार तो हो

दिल से वो जल्वा-गह-ए-नाज़ तो कुछ दूर नहीं
सीना-ए-शौक़ में इक जज़्बा-ए-बेदार तो हो

नाम-ए-महबूब पे बे-ताब नज़ारे होंगे
सज्दा-गाह-ए-दिल-ओ-जाँ कूचा-ए-दिलदार तो हो

उन हसीं आँखों में मय-ख़ाना की शाम-ए-रंगीं
जगमगाएगी मगर 'अख़्तर'-ए-सरशार तो हो