डार से उस की न 'इरफ़ान' जुदा कर उस को
खोल ये बंद-ए-वफ़ा और रिहा कर उस को
नज़र आने लगे अपने ही ख़त-ओ-ख़ाल-ए-ज़वाल
और देखा करो आईना बना कर उस को
आख़िर-ए-शब हुई आग़ाज़ कहानी अपनी
हम ने पाया भी तो इक उम्र गँवा कर उस को
देखते हैं तो लहू जैसे रगें तोड़ता है
हम तो मर जाएँगे सीने से लगा कर उस को
तेरे वीराने में होना था उजाला न हुआ
क्या मिला ऐ दिल-ए-सफ़्फ़ाक जला कर उस को
और हम ढूँडते रह जाएँगे ख़ुशबू का सुराग़
अभी ले जाएगी इक मौज उड़ा कर उस को
ग़ज़ल
डार से उस की न 'इरफ़ान' जुदा कर उस को
इरफ़ान सिद्दीक़ी