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दार है मर्द-ए-अनल-हक़ का वतन | शाही शायरी
dar hai mard-e-anal-haq ka watan

ग़ज़ल

दार है मर्द-ए-अनल-हक़ का वतन

शेर अफ़ज़ल जाफ़री

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दार है मर्द-ए-अनल-हक़ का वतन
अर्श है मर्द-ए-ख़ुदा की जागीर

रोक ले अब्र-ए-करम-गुस्तर को
खींच कर बर्क़-ए-तपाँ की ज़ंजीर

अक़्ल की पंजा-ए-बैअ'त से निकल
तेरा मुर्शिद तिरा मौला है ज़मीर

उस के लिक्खे को बदल सकता है इश्क़
जिस की तक़दीर हो पत्थर पे लकीर

उस का घर पूछती फिरती है रज़ा
शेर-'अफ़ज़ल' है अना मस्त फ़क़ीर