दार है मर्द-ए-अनल-हक़ का वतन
अर्श है मर्द-ए-ख़ुदा की जागीर
रोक ले अब्र-ए-करम-गुस्तर को
खींच कर बर्क़-ए-तपाँ की ज़ंजीर
अक़्ल की पंजा-ए-बैअ'त से निकल
तेरा मुर्शिद तिरा मौला है ज़मीर
उस के लिक्खे को बदल सकता है इश्क़
जिस की तक़दीर हो पत्थर पे लकीर
उस का घर पूछती फिरती है रज़ा
शेर-'अफ़ज़ल' है अना मस्त फ़क़ीर
ग़ज़ल
दार है मर्द-ए-अनल-हक़ का वतन
शेर अफ़ज़ल जाफ़री