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दामन है मेरा दश्त का दामान दूसरा | शाही शायरी
daman hai mera dasht ka daman dusra

ग़ज़ल

दामन है मेरा दश्त का दामान दूसरा

हसरत अज़ीमाबादी

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दामन है मेरा दश्त का दामान दूसरा
मेरी तरह न फाड़े गरेबान दूसरा

यक-रंग हूँ मैं उस गुल-ए-रअना के इश्क़ में
बुलबुल न हूँ कि ढूँडूँ गुल्सितान दूसरा

था ही ग़म-ए-फ़िराक़ मिला उस में दर्द-ए-रश्क
मुफ़्लिस के घर में आया ये मेहमान दूसरा

तेरी हया-ए-चश्म सा देखा नहीं रक़ीब
याँ एहतियाज क्या है निगहबान दूसरा

उर्यां-तनों के सर पे तिरी ख़ाक-ए-कू रहे
दर-कारवाँ नहीं सर-ओ-सामान दूसरा

कीजे ज़मीर-ए-ख़ाक को आदम की छान अगर
उस शक्ल का बन आवे न इंसान दूसरा

जू-उल-बक़र रखे ये शैख़-ए-शिकम-परस्त
इक ख़्वान खा कहे है कहाँ ख़्वान दूसरा

सैर-ए-अजब रखे है तिरी जल्वा-गाह-ए-नाज़
इस लुत्फ़ का कहाँ है ख़्याबान दूसरा

नक़्द-ए-दिल उस को देना है 'हसरत' सवाब ओ फ़र्ज़
उस ज़ुल्फ़ सा न होगा परेशान दूसरा