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दामान-ओ-कनार अश्क से कब तर न हुए आह | शाही शायरी
daman-o-kanar ashk se kab tar na hue aah

ग़ज़ल

दामान-ओ-कनार अश्क से कब तर न हुए आह

नज़ीर अकबराबादी

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दामान-ओ-कनार अश्क से कब तर न हुए आह
दो चार भी आँसू मिरे गौहर न हुए आह

जैसे कि दिल उन लाला-अज़ारों के हैं संगीं
दिल चाहने वालों के भी पत्थर न हुए आह

कहते हैं कि निकला है वो अब सैर-ए-चमन को
क्या वक़्त है इस वक़्त मिरे पर न हुए आह

ख़ूबाँ के तो हम फ़िदवी ओ बंदा भी कहाये
लेकिन वो हमारे न हुए पर न हुए आह

क्या तफ़रक़ा है जब कि गए हम तो न था वो
और आया वो हम पास तो हम घर न हुए आह

क्या नक़्स है उस ग़ैरत-ए-ख़ुर्शीद के आगे
हम लाल तो कब होते हैं अख़गर न हुए आह

दरिया भी बहे मय के पर ऐ बादा-परस्ताँ
ये ख़ुश्क वो लब हैं कि कभी तर न हुए आह

देख उस को 'नज़ीर' अब मुझे आता है यही रश्क
क्यूँ हम भी उसी तरह के दिलबर न हुए आह