दामान-ओ-कनार अश्क से कब तर न हुए आह
दो चार भी आँसू मिरे गौहर न हुए आह
जैसे कि दिल उन लाला-अज़ारों के हैं संगीं
दिल चाहने वालों के भी पत्थर न हुए आह
कहते हैं कि निकला है वो अब सैर-ए-चमन को
क्या वक़्त है इस वक़्त मिरे पर न हुए आह
ख़ूबाँ के तो हम फ़िदवी ओ बंदा भी कहाये
लेकिन वो हमारे न हुए पर न हुए आह
क्या तफ़रक़ा है जब कि गए हम तो न था वो
और आया वो हम पास तो हम घर न हुए आह
क्या नक़्स है उस ग़ैरत-ए-ख़ुर्शीद के आगे
हम लाल तो कब होते हैं अख़गर न हुए आह
दरिया भी बहे मय के पर ऐ बादा-परस्ताँ
ये ख़ुश्क वो लब हैं कि कभी तर न हुए आह
देख उस को 'नज़ीर' अब मुझे आता है यही रश्क
क्यूँ हम भी उसी तरह के दिलबर न हुए आह
ग़ज़ल
दामान-ओ-कनार अश्क से कब तर न हुए आह
नज़ीर अकबराबादी