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दामान-ए-दिल से गर्द-ए-तअल्लुक़ को झाड़िए | शाही शायरी
daman-e-dil se gard-e-talluq ko jhaDiye

ग़ज़ल

दामान-ए-दिल से गर्द-ए-तअल्लुक़ को झाड़िए

जोशिश अज़ीमाबादी

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दामान-ए-दिल से गर्द-ए-तअल्लुक़ को झाड़िए
जूँ सर्व पाँव बाग़-ए-तजर्रुद में गाड़िए

मुमकिन नहीं कि देखिए रू-ए-शगुफ़्तगी
जब तक ब-रंग-ए-ग़ुंचा गरेबाँ न फाड़िए

जो कुछ कि हाथ आए उड़ा दीजिए उसे
क़ारूँ की तरह माल ज़मीं में न गाड़िए

बस्ती में दिल की हिर्स-ओ-हवा का क़याम है
तौफ़ीक़ हो रफ़ीक़ तो इस को उजाड़िए

'जोशिश' कोई हज़ार करे याँ मुख़ालिफ़त
अपनी तरफ़ से तो न किसी से बिगाड़िए