दामान-ए-दिल से गर्द-ए-तअल्लुक़ को झाड़िए
जूँ सर्व पाँव बाग़-ए-तजर्रुद में गाड़िए
मुमकिन नहीं कि देखिए रू-ए-शगुफ़्तगी
जब तक ब-रंग-ए-ग़ुंचा गरेबाँ न फाड़िए
जो कुछ कि हाथ आए उड़ा दीजिए उसे
क़ारूँ की तरह माल ज़मीं में न गाड़िए
बस्ती में दिल की हिर्स-ओ-हवा का क़याम है
तौफ़ीक़ हो रफ़ीक़ तो इस को उजाड़िए
'जोशिश' कोई हज़ार करे याँ मुख़ालिफ़त
अपनी तरफ़ से तो न किसी से बिगाड़िए
![daman-e-dil se gard-e-talluq ko jhaDiye](/images/pic02.jpg)
ग़ज़ल
दामान-ए-दिल से गर्द-ए-तअल्लुक़ को झाड़िए
जोशिश अज़ीमाबादी