EN اردو
दाग़-हा-ए-दिल की ताबानी गई | शाही शायरी
dagh-ha-e-dil ki tabani gai

ग़ज़ल

दाग़-हा-ए-दिल की ताबानी गई

याक़ूब अली आसी

;

दाग़-हा-ए-दिल की ताबानी गई
उन के जल्वों की फ़रावानी गई

आश्ना ना-आश्ना से हो गए
अपनी सूरत भी न पहचानी गई

एक दिल में सैकड़ों ग़म का हुजूम
फिर भी उस घर की न वीरानी गई

अब कहाँ वो जज़्बा-ए-महर-ओ-वफ़ा
आदमी से ख़ू-ए-इंसानी गई

आईने में वक़्त के ऐ हम-नफ़स
दोस्तों की शक्ल पहचानी गई

रह गए होश-ओ-ख़िरद के फ़लसफ़े
जुस्तुजू ता-हद्द-ए-इमकानी गई

'मीर'-ओ-'ग़ालिब' 'वहशत'-ओ-'दाग़'-ओ-'जिगर'
क्या गए 'आसी' ग़ज़ल-ख़्वानी गई